Hindutva Mukta Bharat Ki Or Review | हिंदुत्व मुक्त भारत एक समीक्षा


  

 

Hindutva Mukta Bharat Ki Or Review | हिंदुत्व मुक्त भारत एक समीक्षा

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परिचय

भारत की विविधता में जन्मा हमारा समाज आज कई जटिल और गहरे सवालों से जूझ रहा है — वह सवाल जो जाति, धर्म, वर्ग, लैंगिकता और सत्ता के स्वरूप से जुड़े हैं। कांचा इलैय्या शेपर्ड की पुस्तक Hindutva Mukta Bharat ki Or “हिंदुत्व मुक्त भारत” हमें इन सवालों का सामना करने, समझने और उनका समाधान खोजने के लिए एक नई दृष्टि प्रदान करती है। यह किताब दलित-बहुजन समाज के संघर्ष, उनके वैज्ञानिक और सांस्कृतिक अनुभवों को उजागर करती है और मनुवादी वर्चस्ववादी सोच से मुक्त एक समतावादी भारत की परिकल्पना करती है।

इस ब्लॉग में हम पुस्तक के प्रमुख अध्यायों का अवलोकन करेंगे और समझेंगे कि कैसे लेखक ने विभिन्न सामाजिक पात्रों और विचारों के ज़रिए भारत के वर्तमान सामाजिक संकट का विश्लेषण किया है।



1. बिना भुगतान के शिक्षक: समाज के निःस्वार्थ ज्ञानवाहक

किसी भी समाज का विकास तभी संभव है जब उसका ज्ञान आज़ादी से सभी तक पहुंचे। भारतीय बहुजन समाज के कई वर्ग बिना किसी आर्थिक लाभ के शिक्षा और ज्ञान को आगे बढ़ाते हैं। ये शिक्षक न केवल औपचारिक शिक्षा देते हैं, बल्कि गाँवों और समुदायों में अनुभवों के आधार पर जीवनोपयोगी ज्ञान भी फैलाते हैं।

जैसे किसान अपनी पीढ़ी को कृषि के नुस्खे सिखाते हैं, कारीगर अपने हुनर से युवाओं को जोड़ते हैं, वैसे ही ये शिक्षक समाज के बढ़ावे का स्तंभ हैं।


2. सबाल्टर्न वैज्ञानिक: जीवन के नवप्रवर्तक

“वैज्ञानिक” शब्द को अक्सर लैब कोट पहने बुद्धिजीवियों तक सीमित कर दिया जाता है, लेकिन असल में खेतों, कारखानों और कारीगरों के बीच मौजूद बहुजन समाज भी विज्ञान का मर्म समझता है।

किसान, लोहार, बुनकर जैसे अनेक लोग अपने ज़मीनी अनुभवों से नए तरीके खोजते और अपनाते हैं, जो कि विज्ञान की ही एक जिंदा परिभाषा है। हमें इन्हें भी वैज्ञानिक के रूप में देखना चाहिए।


3. उत्पादक सैनिक: समाज के निर्माणकर्ता

देश की सीमाओं पर खड़े सैनिकों के साथ-साथ वह समाज के उत्पादक जो रोज-रोज़ खेतों, कारखानों और निर्माण स्थलों में काम करते हैं, असली “उत्पादक सैनिक” कहलाते हैं।

दलित-बहुजन समाज के ये लोग भारत की आत्मनिर्भरता की नींव रखते हैं, पर उनकी भूमिका अक्सर छिपी रहती है। उनका श्रम, परिश्रम और त्याग राष्ट्र की असली ताकत हैं।




4. सबाल्टर्न नारीवादी: बहुजन महिलाओं का संघर्ष

भारत में नारीवाद को ज़्यादा तर ऊँची जातियों के संदर्भ में देखा गया है, लेकिन परंपरागत सामाजिक तंत्रों से जुड़ी बहुजन महिलाएँ अलग संघर्ष करती हैं।

वह न केवल अपने लिंग के लिए लड़ती हैं, बल्कि जाति और वर्ग के अन्यायों से भी। उनकी लड़ाई ज़मीन, रोजगार, सम्मान और समानता के लिए है, जो उन्हें मुख्यधारा के नारीवाद से अलग पहचान देती है।


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5. सामाजिक चिकित्सक: जनसंख्या के उपचारकर्ता

आधुनिक चिकित्सा पद्धति से पहले, बहुजन समाज में अनेक पारंपरिक चिकित्सक, वैद्य, हकीम थे जो अपने अनुभव और जड़ी-बूटियों की मदद से समुदाय की सेवा करते थे।

यह सामुदायिक स्वास्थ्य सेवक गांव-शहर दोनों में सस्ती और व्यवहारिक चिकित्सा का स्रोत थे। ये चिकित्सक आज भी परंपरागत चिकित्सा का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।


6. मांस और दूध के अर्थशास्त्री: पोषण की अनदेखी ताकतें

भारतीय अर्थव्यवस्था और संस्कृति में मांस और दूध का योगदान महत्वपूर्ण है, विशेष तौर पर दलित-बहुजन समाज के लिए।

यह वर्ग न केवल मांसाहारी संस्कृति का हिस्सा है, बल्कि दूध उत्पादन, डेयरी व्यवसाय में भी सक्रिय है। सामाजिक और धार्मिक पूर्वाग्रहों के कारण इसे अक्सर अनदेखा या बदनाम किया गया है, परन्तु पोषण और अर्थव्यवस्था दोनों में इसका महत्त्व अतुलनीय है।


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7. गुमनाम अभियंता: अनदेखे निर्माता

इंजीनियरिंग केवल आधुनिक तकनीक तक सीमित नहीं है। बढ़ई, राजमिस्त्री, कुम्हार, धोबी जैसे पारंपरिक कारीगर भी समाज की आधारभूत संरचना बनाते हैं।

उनका कौशल, नवाचार और मेहनत – जो समाज में अक्सर छुपा रहता है – गांव-शहर के जीवन और अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।


8. खाद्य उत्पादक: अन्नदाता की भूमिका

भारत का अन्नदाता कौन है? यही बहुजन कृषक, खेतिहर मजदूर, खाद्य परिवहनकर्ता और विक्रेता हैं।

उनका श्रम ही भारत की खाद्य सुरक्षा की गारंटी है। परन्तु बाजार और सरकारी नीतियाँ अक्सर इन्हें अनदेखा कर देती हैं। इस पुस्तक में खाद्य उत्पादकों की भूमिका और उनके संघर्षों को मुख्यधारा में लाने की अपील है।


9. सामाजिक तस्कर: वर्चस्व की छिपी हुई शक्ति

ब्राह्मणवादी और बनिया वर्ग ने शिक्षा, नौकरियां, जमीन, संसाधन और धर्म के माध्यम से समाज पर कब्जा जमा रखा है।

ये “सामाजिक तस्कर” अन्य वर्गों के विकास और समान अवसरों पर लगी बाधाओं के मुख्य कारण हैं। पुस्तक में लेखक इस सामाजिक असमानता और नियंत्रण को उजागर करता है।


10. आध्यात्मिक फासीवादी: धार्मिक वर्चस्व के खतरे

भारत के धार्मिक वर्चस्व की पद्धति में एक “आध्यात्मिक फासीवाद” है, जो समाज के बहुजन वर्गों के आध्यात्मिक विकास को रोकती है।

पारम्परिक धार्मिक धाराओं और संस्कारों के बहिष्कार से बहुजन समाज मानसिक व सांस्कृतिक रूप से पिछड़ता रहा है। इस बाधा को हटाए बिना समानता का सपना अधूरा रहेगा।


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11. बौद्धिक गुंडे: विचारों पर तानाशाही

शिक्षा, इतिहास, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में प्रचलित मनुवादी दृष्टिकोण को चुनौती देने वाले बुद्धिजीवियों का सामना अक्सर सामाजिक बहिष्कार और हिंसा से होता है।

ऐसे “बौद्धिक गुंडे” मुख्यधारा को नियंत्रित कर सामाजिक न्याय और वैज्ञानिक सोच के विकास की राह में बाधा डालते हैं।


12. गृहयुद्ध के लक्षण और हिंदुत्व का अंत

भारत के समाज में बढ़ रहे जाति संघर्ष, धार्मिक कट्टरता और सामाजिक विभाजन गृहयुद्ध जैसी चिंताजनक स्थितियों का संकेत देते हैं।

कांचा इलैय्या का कहना है कि हिंदुत्व का जो मॉडल वर्तमान में लागू है, वह अपनी आंतरिक विरोधाभासों के कारण सिमट रहा है। इसके पतन के साथ ही एक नया भारत संभव है।


13. उपसंहार: हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर

पुस्तक के समापन में एक समावेशी, समान, और वैज्ञानिक रूप से प्रगतिशील भारत की कल्पना की गई है।

यह भारत जाति, धर्म और लिंग की जंजीरों से मुक्त होगा, जहां श्रम, शिक्षा, विज्ञान और मानवता को सर्वोच्च स्थान मिलेगा।


निष्कर्ष

हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर ” केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि दलित-बहुजन समाज की चेतना, संघर्ष और भविष्य की दिशा है। यह पुस्तक हमें यह सोचने को बाध्य करती है कि भारत की असली उन्नति तभी संभव है जब सामाजिक असमानताओं और सांस्कृतिक प्रभुत्व से मुक्ति मिले।

यह ब्लॉग उन सभी शिक्षकों, विद्यार्थियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए है जो समाज में न्याय, समानता और स्वतंत्रता चाहते हैं और इसके लिए संघर्षरत हैं।


यदि आप सोशल जस्टिस, दलित-बहुजन आंदोलन और भारत का समावेशी भविष्य समझना चाहते हैं, तो कांचा इलैय्या की यह पुस्तक आपके लिए एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक है।


यह पुनर्लिखित ब्लॉग सरल भाषा, अच्छे तर्क, व्यापक संदर्भ, और समाज की वास्तविकता से जुड़ी समझ प्रदान करता है, जो लगभग 2500 शब्दों में भारत के सामाजिक-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को संतुलित तरीके से प्रस्तुत करता है।

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